ईसाई धर्म और वर्ग आधारित भेदभाव : एक सच

भारत में जब भी जाति व्यवस्था/वर्ण व्यवस्था या छुआछूत पर चर्चा होती है तो हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति व्यवस्था/वर्ण व्यवस्था  की ही बात सामने आती है। इस कुरीति व अन्यायपूर्ण समाजिक व्यवस्था को जड़ से समाप्त करने के लिए अनेक समाज सुधारकों व समाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा निरंतर प्रयास होता रहा है।

इन्ही कुरीतियों व अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कारण ही विरोध स्वरूप बौद्ध मत का उदय भी हुआ था । इसी व्यवस्था से त्रस्त होने पर या इसी व्यस्था को ध्यान में रखकर इसाई मिशनरियां दलित/निम्न हिंदू वर्ग को बहला-फुसलाकर आसानी से इसाई धर्म में परिवर्तित करने में कामयाब हो जाते हैं। 

जबकि एक सत्य यह भी है कि जाति व्यवस्था , छुआछूत मात्र हिंदू धर्म में ही नहीं अपितु इसाई धर्म व मुस्लिम धर्म में भी बड़े स्तर पर व्याप्त है।लोगों को लगता है कि इसाई धर्म में ऐसी संकीर्णता नहीं होगी,वह इन सब बातों से बहुत आगे निकल चुके हैं लेकिन वह सिर्फ छद्म आवरण के बाहर का सच है।आवरण के भीतर देखने पर कुछ और ही रूप दिखाई पड़ता है। भारत में इसाई धर्म को भी आसानी से 2 भागों में बांटा जा सकता है। एक सवर्ण इसाई या इसाई जिसका की लगभग पूर्ण चर्च व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित है । दूसरा  दलित इसाई जिसकी संख्या भारतीय ईसाईयों में लगभग 70% है। दलित ईसाई यानी हिंदू धर्म से ईसाइयत में आए लोग हैं। 
भारत के सबसे बड़े कैथोलिक चर्च में ही वे उपेक्षित व अपमानित स्थिति में हैं। चर्च द्वारा संचालित संस्थानों में दलित ईसाइयों को महत्वपूर्ण स्थान कभी नहीं दिया गया। कितने स्कूलों में दलित ईसाई प्रिंसिपल और अध्यापक हैं? कितने कॉलजों में प्रोफसर या डीन हैं? कितने अस्पतालों में डाक्टर हैं? शिक्षा का डंका बजाने वाले चर्च की कृपा से पढ़-लिखकर कितने उच्च पदों पर हैं?आध्यात्मिक मामलों की ही बात करें तो दलित ईसाइयों की स्थिति बेहद दयनीय है। एक नजर आंकड़ों पर नजर डालें तो---
(आंकड़े लगभग 2 वर्ष पुराने हैं)

पद                    कुल संख्या      दलित ईसाईयों की भागीदारी


कार्डिनल                  6                               0
आर्च बिशप              30                             0
बिशप                      175                           9
मेजर सुप्रीरियर          822                        12
पादरी                   25000                   1130

एक लाख नन में मात्र कुछ ही हजार दलित इसाई हैं।करीब एक दशक पूर्व दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में चर्च नेतृत्व ने दलित ईसाइयों को 40 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया था। इसे देखते हुए दिल्ली कैथोलिक आर्च डायसिस ने भी 30 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया था। सेंट स्टीफन कॉलेज ने दो साल के अंदर ही आरक्षण बंद कर दिया।कैथोलिक ने कभी इसे लागू ही नहीं किया।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल काउंसिल ऑफ दलित क्रिएश्चिएन ( NCDC) की एक याचिका पर नोटिस जारी किया है जिसमें दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा देने के लिए निर्देश देने की मांग की है।NCDC की ओर प्रस्तुत वकील ने दलील दी है कि,

"धर्म परिवर्तन व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को बदल नहीं सकता है, यह भी प्रस्तुत किया गया कि ईसाई धर्म के भीतर जाति पदानुक्रम की धारणाएं मौजूद हैं और अनुसूचित जाति मूल के व्यक्तियों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा रखा गया है। इस मूल के लगभग 16 मिलियन ईसाई इस वजह से पीड़ित हैं।"


विदित है कि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 का अनुच्छेद तीन अनुसूचित जाति मूल के ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने से प्रतिबंधित करता है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति जो हिन्दू , सिख या बौद्ध से अलग किसी अन्य धर्म मानता है,उसे अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं प्रदान किया जा सकता।
 

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