हम क्यों जी रहे........

इस संसार में हम सांस तो ले रहे.....जिंदगी भी गुजार रहे..... लेकिन हमें ज्ञात ही नहीं किया हम जी क्यों रहे हैं....... किसलिए जी रहे हैं...... कहां तक जीना चाहते हैं...... हमारा मकसद क्या है..... हमारा लक्ष्य क्या है......क्या हम उसी दिशा में बढ़ रहे......? प्रश्न ही प्रश्न हैं......शायद बस ज़बाब की ही कमी है.......और जब तक इन प्रश्नों के हम ज़बाब न ढूंढ़ पायेंगे...क्या हम अपने वर्तमान में वास्तव प्रसन्न हो पायेंगे.....शायद नहीं....!....और हममें से ज्यादातर लोग अपनी वर्तमान परिस्थिति से प्रसन्न भी नहीं रहते......क्या हमारा अनुमान सही है.....🤔
चलिए अब आगे चलते हैं.....इस वर्तमान परिस्थिति की अप्रसन्नता का शायद मूल कारण है.…..कि हम आज जहां भी हैं अपने मन से नहीं हैं.......हम परिस्थिति रूपी धारा में बहते हुए स्वत: यहां तक पहुंच गये हैं......जबकि यह वर्तमान न तो हमारा विचार था, न ही हमारा स्वप्न और न ही हमारे लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग का एक पड़ाव.........ऐसा तभी होता है जब हम अपने आप को स्वतंत्र छोड़ देते हैं नियति के भरोसे...... परिस्थितियों के सहारे........जैसे एक लकड़ी का टुकड़ा नदी में बहते हुए वहीं पहुंच जाता है जहां तक नदी उसे ले जा सकती थी.......!
लेकिन हमें लकड़ी का टुकड़ा नहीं बनना है...... हमें उस लकड़ी के टुकड़े से बनी नौका बनना है......जो रहेगी तो नदी में ही.....चलेगी भी कभी नदी की धारा के साथ तो कभी नदी की धारा के विपरीत.......परंतु अपनी मर्जी से...…...!
हममें से अधिकतम लोगों को ज्ञात ही नहीं कि वो चाहते क्या हैं......किसी के मित्र ने कुछ प्राप्त कर लिया है तो वो भी उसी को पर्याप्त करने के पीछे दौड़ रहे.....किसी के पड़ोसी ने इमारत बना ली है तो झोपड़ी छोड़कर हम भी इमारत खड़ी करने की जद्दोजहद में लगे पड़े हैं......अब अगर हम इमारत खड़ी भी कर देते हैं तो भी क्या हम प्रसन्न हो जायेंगे.....!....हमारे विचार से तो नहीं....यह संभव ही नहीं......क्योंकि इमारत हमारी चाहत थी ही नहीं.....इमारत कभी हमारी आत्मा की आवाज ही नहीं थी.....वो तो हम देखा-देखी में दौड़ पड़े इमारत के पीछे......जब तक दौड़ते रहे तब तक ध्यान ही न गया इस बात पर कि यह हमारा लक्ष्य नहीं है......और जब हमें बुढ़ापे में बैठकर खुद से बातें करने का वक्त मिलता है तो हमें समझ आता है कि हमने तो वह कुछ भी न किया जो हम आत्मीयता से करना चाहते थे......जिंदगी बस नदी में पड़े लकड़ी के टुकड़े की तरह बहने में बीत गई...... लेकिन हम जब तक यह समझते हैं बहुत देर हो चुकी होती है.......!
 हम यही चाहेंगे कि हम लकड़ी का टुकड़ा न बनकर लकड़ी की नौका बनें...... हम भी कभी नदी के साथ चलें तो कभी विपरीत, लेकिन अपनी मर्जी से....... क्योंकि हमारा जीवन दुर्घटना मात्र नहीं है........जिस तरह से हम अब तक जीते आ रहे हैं अगर उसी तरह से आगे भी जीते रहेंगे तो हम अपने लक्ष्यों तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे......!

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